"तो इस तरह मैंने जाना नवल जी को." फ़रीद खां की श्रद्धांजलि

                                                     
                                                                

(1985 में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मलेन, पटना कॉलेज की तस्वीर. आगे की पंक्ति में दाहिनी तरफ़ नवल जी और बाई तरफ़ फ़रीद खां)

नवल जी से हमारा संबंध पारिवारिक था. वह मेरे मामा प्रोफ़ेसर जावेद अख्तर खां के पीएचडी गाईड थे. चूंकि कई वामपंथी संस्थाओं में दोनों ही परिवारों के अलग अलग सदस्य सक्रिय थे, उनमें आपसी मित्रता के कारण धीरे धीरे हमारा संबंध पारिवारिक हो गया. यह उस समय की बात है जब मैं अपने परिवार में सबसे छोटा हुआ करता था और कभी यह सोचा भी नहीं था कि मुझ से छोटा भी कोई होगा. इसलिए अपने से बड़ा हर कोई मुझे महामानव ही लगता था और नवल जी मेरे महामानव मामा के गाईड होने के नाते अति महामानव थे. उस समय नवल जी की छवि बड़े ही सख्त मिज़ाज वाले व्यक्ति की थी. ऐसा मैं केवल दूसरों से सुना करता था. उस वामपंथी समाज में उनकी टिप्पणियों और वक्तव्यों को बड़ी गंभीरता से लिया जाता था और अपनी तो हालत भी नहीं होती थी उनके सामने खड़े होने की. आज भी मैं उनकी लेखनी पर कुछ लिखने का साहस नहीं कर सकता. मैंने इतना पढ़ा ही नहीं है. इसलिए मैं केवल एक प्रसंग लिख कर अपनी बात ख़त्म करूँगा जिसका साहित्य से कोई लेना देना नहीं है, या संभवतः है.


बात है 1990 की. राम शिला पूजन के नाम पर भाजपा ने पूरे उत्तर भारत में ज़हर फैला रखा था. पटना में भी ऐसी नौबत आ गई थी कि अब दंगा हुआ कि तब दंगा हुआ. उस दिन हिन्दू मुसलमान रात भर नारे लगाते रहे. शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया. अचानक सुबह सुबह दो धोती-धारी, नवल जी और प्रो. तरुण कुमार पठान टोली, आलम गंज नामक हमारे मुस्लिम बहुल इलाके में घुस आए. मोहल्ले के पहरेदार चौकन्ने हो गए कि ‘उधर’ से ये कौन दो लोग चले आ रहे हैं. उनके निहत्थे साहस के आगे किसी में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें रोक कर पूछे कि तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो ? इसलिए कोई दरवाज़े के फाफड़ से और कोई उन्हें नहीं देखने का अभिनय करते हुए उन्हें बड़े गौर से देख रहा था. पता चला कि वो दोनों ‘उधर’ से आ हुए लोग अख्तर परिवार में गए हैं.

नवल जी और तरुण जी हमें हौसला देने आए थे. उन्हें पता था कि हमारा परिवार मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों के निशाने पर भी रहता है और हिन्दू सांप्रदायिक तत्वों के निशाने पर भी. हम दोनों तरफ़ से मारे जा सकते हैं. इसलिए हमारे साथ उन्होंने एकजुटता दिखा कर किसी भी तरह की मदद का वादा किया और चले गए. इसके बाद सचमुच हमारे परिवार को बड़ा हौसला मिला. हमें महसूस हुआ कि शहर में ऐसे बहुत सारे लोग है जो हमारी चिंता करते हैं. उनके जाने के बाद मोहल्ले के लोगों ने टोह लेने की कोशिश की कि वे कौन लोग थे. हमने भी पूरे आत्मबल के साथ कहा कि वे कौन लोग थे. हालांकि उन्हें समझ में तो नहीं आया कि वे कौन लोग थे, बस इतना समझ गए कि उनसे कोई ख़तरा नहीं है. हमारे मोहल्ले में कुछ लोग यह भी समझने लगे कि हमारा संबंध ‘उधर’ के लोगों से भी है इसलिए अलग अलग समय पर किसी दूसरे प्रसंग में भी अचानक से वे मुझ से पूछ बैठते थे कि वो दो लोग कौन थे ताकि अचानक से कोई ‘सच’ सामने आ जाए.

तो इस तरह मैंने जाना नवल जी को.




- फ़रीद खां 

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